निर्बाध सत्ता, अनियंत्रित प्रशासन और असहाय जनता
जब तक सत्ता हस्तांतरणीय रहेगी तब तक लोक सेवा, करुणा, आदर्श राजनीति एवं प्रशासन पर नियंत्रण सुचारु रूप से चलता रहेगा। परिवर्तन बहुत आवश्यक है, यही प्रकृति का नियम है।
दल या गुट का निर्बाध रूप से पूर्ण शक्ति के साथ शासन निरंकुशता को जन्म देता है। शक्ति कुछ विशिष्ट समूहों तक सीमित होकर रह जाती है जिसका उपयोग दुरूपयोग में बदल चुका होता है। निर्बाध सत्ता बल पूर्वक दमन की राह पर और जनता असहाय की परिपाटी को मान्य कर लेती है। इन दोनों के मध्य प्रशासन का उद्दंड एवं अनियंत्रित रवैया उभरकर सामने आता है। निर्बाध सत्ता सर्वोच्च से लेकर सबसे निचले पायदान तक सभी को सर्वोपरि होने की अवधारणा को प्रबल कर देती है। सत्ता का अहस्तांतरण किसी भी व्यवस्था में सामान्य जन-समुदाय के लिए उचित नहीं है एवं न्यायिक सिद्धांत की परिभाषा के लिए सदैव ही अवरोध उत्पन्न करेगा।
निरंकुशता से शुरुआत होती है बुरे दिनों की जो विधि एवं व्यवस्था को भयावह दौर में लेकर जाता है। प्रतिरोध की भावना को अनियंत्रित प्रशासन पहले ही कुचल चुका होता है। इन परिस्थितियों में कर्मचारी एवं प्राधिकारी निरंकुश शैली का उपयोग करने का अभ्यस्त हो कर उत्साहित होते हैं। इस तरह सत्ता पर काबिज़ व्यक्तियों से लेकर प्रशासनिक तंत्र में शामिल व्यक्तियों को निरंकुशता में आनंद की अनुभूति होने लगती है। अधिकार प्राप्त वर्ग जन सामान्य की भावनाओं एवं अधिकारों को कुचलने में अपनी पूरी ऊर्जा का इस्तेमाल करता है।
विगत कुछ वर्षों में ऐसे अनेक उदाहरण देखने को मिले जहाँ कई वर्षों की निर्बाध सत्ता ने सत्तारूढ़ दल के मुखिया से लेकर एक सामान्य कार्यकर्ता तक सभी का आचरण शक्ति के मद में डूबा कर रख दिया। जनसेवा की इच्छा मर चुकी होती है एवं संवेदना का एहसास दम तोड़ रहा होता है। भय का प्रबंधन इतना प्रबल होता है कि सामान्य जनता उस भय के छद्म आवरण को तोड़ सकने में असहाय नज़र आती है। और असहाय जनता को वो कभी दिखाई ही नही देता जो होता है, बल्कि वो दिखता है जो सत्ता के ठेकेदार दिखाते है। जनता की आवाज़ धीरे – धीरे दबती चली जाती है। अर्ध ऊहापोह की स्थिति उन विचारों, मुद्दों को जन्म देती है जो भय के आवरण द्वारा प्रबंधित किए जा सके। जरूरत और जिम्मेदारियों जैसे शब्द अपना अर्थ खो चुके होते हैं। अनियंत्रित प्रशासन के लिए यह समय अमृत काल से कम नहीं होता है। भ्रष्टाचार, फर्जीवाड़ा, गबन, जनता के सामान्य अधिकारों का हनन, असहाय जनता का दमन एवं अन्य सभी असामाजिक कृत्य एवं अपराध अनियंत्रित प्रशासन की कार्यप्रणाली का अभिन्न अंग होते है। निर्बाध सत्ता एवं अनियंत्रित प्रशासन लोकतंत्र और मानवाधिकारों के साथ साथ समस्त मानव समाज एवं समुदाय के लिए खतरा है। सुशासन, निष्पक्षता, न्याय और सामाजिक व्यवस्था पूर्णतः ध्वस्त हो जाती है। आर्थिक विकास बाधित होता है एवं लोकतांत्रिक संस्थानों की स्थिरता और समाज की नैतिक नींव भी खतरे के आवरण में रहती है। पूरी व्यवस्था में विकृति उत्पन्न हो जाती है जो कि सामान्य जनता के लिए भयावह दिनों को लेकर आती है।
इतने पर भी कमाल की बात है कि जब इस आवरण से कुछ लोग, समाज अछूते रह जाते हैं और अपने अधिकारों एवं उत्तरदायित्व की समझ के चलते निर्बाध सत्ता एवं अनियंत्रित प्रशासन से सवाल पूछने की हिम्मत कर बैठते हैं तो उन्हें प्रबंधित करने के लिए मीडिया, सोशल मीडिया, और आईटी सेल स्टैंडबाय मोड पर होते हैं। और फिर बरसात होती है उस परम ज्ञान कि जो ना कभी देखा गया, ना कभी सुना गया और ना ही कभी बोला गया।
निर्बाध सत्ता, अनियंत्रित प्रशासन और असहाय जनता ये तीनों पर्याय है एक - दूसरे के एवं उत्पत्ति का कारण भी। ठहराव कभी भी, किसी भी अवस्था में सही नहीं होता है ना ही तंत्र के लिए, ना ही जीवन के लिए। हम सभी इस बात को बेहतर तरीके से जानते हैं, समझते हैं। फिर हमसे चूक कहां हो जाती हो? उगता हुआ सूरज वंदनीय है, अस्त होता सूरज विचारणीय है, बहता हुआ जल स्वच्छ है, चलता हुआ जीवन सर्वोत्तम है। बस कुछ ऐसा ही सिद्धांत लागू होता है शक्ति एवं सत्ता पर। जब तक सत्ता हस्तांतरणीय रहेगी तब तक लोक सेवा, करुणा, आदर्श राजनीति एवं प्रशासन पर नियंत्रण सुचारु रूप से चलता रहेगा। परिवर्तन बहुत आवश्यक है, यही प्रकृति का नियम है।
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